बूढ़ी नजरों में बेबसी का आलम (मेरी नजर को तेरा इंतजार आज भी है)
जीवन संघर्षों के ताने-बाने से बुने उस जाल की तरह है जिसकी उलझलोंं में पड़े-पड़े इंसान ताउम्र गुजार देता है। एक इंसान की जब उम्र ढलती है तो धीरे धीरे उसके सगे संबंधी उससे दूर होने लगते हैं यहां तक कि उनका अपना बच्चा भी अपनी दुनिया में इतना मसरूफ़ जाता है कि इन बूढ़ी नजरों के सामने एक बार आने की गुस्ताख़ी भी नहीं करता है। वो नादान ये भी भूल जाता है कि मैं उन नजरों से ओझल हो गया हूँ जिन नज़रों ने मेरे लिए सपने सजाए, जो नज़रे हर पल मेरे लिए बेताब रहती हैं, वो नजरें किसके सहारे जिंदा हैं, कहीं वो नजरें मेरे इंतजार में सूख तो नहीं गईं, इतना भी जानने की कोशिश नहीं करता है। हर सुबह सूरज की लालिमा इनके चेहरे पर उम्मीद की किरण तो बिखेरती है परंतु धीरे-धीरे जब शाम ढलने लगती है तो इनकी उम्मीदों पर भी काली घटा छा जाती है। ये उम्मीदें अपनों के आने की आहट की होती हैं उनकी मधुर आवाज की होती, कान में गूंजती किलकारियों की होती है, ये जिनपर पूरी जिंदगी न्योछावर करते हैं उनके रहमों-करम की होती हैं।
इंतजार कब तलक करें भला... दिल्ली के कनाड प्लेस पर पेड़ की छांव के नीचे उम्मीद भरी नजरों को किसी अपने के आने का इंतजार |
अकेलेपन से जकड़े हैं मायूसी के आलम में |
उठते तूफां को देख दिल में खौ़फ मंज़र उज्जैन के कुंभ मेले के दौरान आते तूफान को देखरकर हतास नजरें किसी आसरे की तलाश में |
बहुत बढ़िया अमित...
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