Friday, November 10, 2017

जहां से प्रवाहित होती है आस्था की गंगा "वाराणसी"

आस्था की नगरी बनारस जिसे काशी के नाम से भी जाना जाता है इतिहास के सुनहरे पन्नों में चमकने वाला बनारस जहां से आस्था का शैलाब बहता है। यह सिर्फ हिंदुओं का नहीं बैद्ध और जैन धर्म का भी पवित्र स्थल माना जाता है। बनारस के घाट पर शाम को होने वाली गंगा आरती को देखने के लिए लोग हजारों मील दूर से आते हैं। शहर से 10 किमी दूर सारनाथ स्थित है जहां पर ज्ञान प्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध जी ने अपना पहला उपदेश दिेए थी।  यह वही जगह है जहां से बौद्ध धर्म की यात्रा शुरु हुई थी। गंगा की निर्मल धारा में सूरज की पहली किरण के साथ दूर-दराज ( देश विदेश) से आए हुए लोग नौका विहार करते हैं
गंगा किनारे बने विभिन्न घाट जहां नहाकर लोग पाते हैं आत्मसंतुष्टि

गंगा की बीच धारा में सुबह को रौशनी में नौकाविहार करते लोग

सुबह की किरणों में गंगा की निर्मल धारा में नौकाविहार करते तीर्थयात्री

महात्मा बुद्ध के उपदेशों को बौद्द गुरु से सुनते तिब्बत से अाए हुए बौद्ध भिच्छू

सारनाथ का धम्म स्तूप

Thursday, November 9, 2017

खूबसूरती और इंसानियत की मिसाल "कर्मयोगियों का आनंदवन"

महज एक बीमारी के चलते कोई कैसे अपनों से हमेशा हमेशा के लिए मुंह मोड़ लेता है,किसी का मन एक बीमारी से इतना बिचलित कैसे  हो जाता है कि वह अपने खून के रिश्ते भुलाने में पल भर देर नहीं करता है। कोई कैसे एक ऐसे मासूम को  कूड़ेदान,कचरे में फेंककर गुम हो जाता है जिसने अभी अपनी आंखें भी नहीं खोलीं । एक वो है जो इन्हें मरने के लिए छोड़कर चला जाता है, दूसरा वो है  जो कहीं से घूमते भटकते इनतक पहुंचता है और मसीहा बनकर इन्हें दुनिया में आने का अधिकार दिलाता है। यह वह मोड़ है जहां एक ओर इंसानियत मरती है और दूसरी ओर  इंसानियत मिसाल कायम करती है। ऐसे ही मोड़ से बारिश में भीगते एक कुष्ठ रोगी की सेवा से शुरु हुआ "आनंदवन" । यह वो जगह है जहां समाज से ठुकराए गए इंसानों को पनाह मिलती है, उन्हें एक ऐसी दुनिया मिलती जहां सब लोग एक दूसरे से मुस्कुराकर बातें करते हैं, किसी के मन में किसी भी प्रकार का कोई खोट नहीं होता। ये वो जगह है जहां सबको बराबर सम्मान मिलता है, अपनापन मिलता है, जीवन जीने  के नए-नए आयाम होते हैं, सबके तौर तरीके में अपनापन होता है। यह वो जगह है जहां बेघर को घर, अनाथ को परिवार, नंगे- भूखे को कपड़ा और रोटी मिलती है। यह वो जगह है जहां  समाज से दुतकार गया इंसान (भीख मांगने वाला) करोड़ो का उत्पादन कर रहा है। यहां प्रेम की बयार चलती है, इंसानियत की महक पूरे वातावरण में बिखरी रहती है। इसका निर्माण भारत के महान समाजसेवी बाबा आम्टे द्वारा  समाज से ठुकराए गए लोगों को पनाह ,आत्मसम्मान से भरा जीवन जीने, खुद कमाओ खुद खाओ किसी के एहसान पर पलने की जरुरत नहीं के तर्ज किया गया।
आनंदवन प्राकृतिक सौंदर्य से ढका हुआ है यहां की हवाओं में शिमला जैसी ताजगी महशूश होती। यहां समाज से ठुकराए गए इंसान रहते हैं, अनाथ रहते हैं, मूक बधीर व दृष्टिहीन बच्चों को सहारा मिलता है। यहां शारीरिक रुप से असक्षम बच्चों में कलाओं का असीमित हुनर कूट कूटकर भरा हुआ है।
यहां दूध-दही, घी, खोआ, पनीर से लेकर कपड़ा, जूता-चप्पल, खिड़की दरवाजे, फल-फूल, पैधे तक का व्यवसाय आनंदवन में रहने वाले लोगों द्वारा किया जाता है। आनंदवन आज सर्व साधन सपन्न है यहां उन्नत किस्म की खेती होती है।  वर्तमान में 180 हेक्टेयर में फैला आनंदवन अपनी आवश्यकता की हर वस्तु स्वंय पैदा कर रहा है। आनंदवन में तकरीबन 600 कुष्ठ रोगी रहते हैं यहां इनकी सेवा की जाती इलाज किया जाता है और उन्हें रोगी से उच्च कर्मयोगी बनाया जाता है।

आनंदवन में ढलती शाम का मनमोहक दृश्य ( आनंदवन पाकृतिक सौन्दर्य  को भी अपने समेटे हुए है)

हमें खुशियों की तलाश नहीं, हम लोग तो बिंदास जीते हैं।

आनंदवन में पानी बचत करने के अनेक पाकृतिक तरीक अपनाए जाते हैं, यहां तालाबों की भरमार है। तालाब किनारे बसा आनंदवन गांव

आनंदवन की खेती 

आनंदवन की हरी भरी सड़कों पर हवाओं से बाते करते कई इंसान मिल जाते हैं जो सैकड़ों के बीच में रहते हुए अपनों की याद में हमेशा खोए रहते हैं। उनकी यादों को यादकर उम्र गुजार रहे हैं।

अकेले तन्हा उम्र कैसे गुजारेंगे

बोलती नजरों ः यहां आजाव से नहीं नजरों से बात करने  का चलन है,इन नजरों की बेबसी कभी कभी अपनों को ढूढने लगती हैं, बात करना चाहती हैं लेकिन मायूसी के अलावा कुछ हाथ नहीें आता है।


हम साथ-साथ हैं-इन बच्चों को जन्म देने वाला कौन है इन्हें नहीं पता, ये बच्चे न तो सुन सकते हैं और न ही कुछ बोल सकते हैं बस इनकी मुस्कुराहट में ही इनका भाव छुपा होता है। इनकी नजरें बातेें करती हैं। 

Wednesday, November 8, 2017



महात्मा गांधी (बापू ) की  नगरी में एक माँ बनी मोची 

हम सभी ने तमाम महिलाओं को फल-फूल, सब्जी, चाट,पानी पुड़ी, चाय, पान व फुटपाथ पर जूते-चप्पल, कपड़ा इत्यादि बेचते देखा है परंतु किसी  महिला मोची को नहीं देखा ।  राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की नगरी वर्धा  शहर में  अपने बच्चों का भविष्य सवांरने के लिए 30 वर्ष की प्रतिभा सन् 2005 से मोची का काम कर रही है। पति की कमाई से घर का खर्च चलना मुश्किल हो रहा था, थोड़े समय बाद ही प्रतिभा के जीवन में नन्हीं सी जान ने दस्तक दी फिर  उसको उस नन्हीं सी जान की फिकर सताने लगी जिसके चलते प्रतिभा ने सौ दो सौ कमाने का निर्णय किया। प्रतिभा के पति राजेश शुरु से ही मोचीगीरी के पेशे में हैं जिससे उसने घर बैठे ही उससे मोची का काम सीखी और पति की तरह प्रतिभा भी वर्धा की सड़कों पर अपनी दुकान सजाने लगी। प्रतिभा घर का काम निपटाने के बाद तपती धूप हो या कड़ाके ठण्ड व तेज बारिश वह सड़क के किनारे अपनी दुकान लेकर पहुंच जाती है। प्रतिभा के घर में कुल पांच सदस्य हैं सास, पति और दो बच्चे लड़का 12 साल का और लड़की 8 साल की इन्हीं का भविष्य सवांरने के लिए ये सड़क किनारे अपनी दुकान सजाने लगी। प्रतिभा कहती है लोग इस काम को करते से कतराते हैं,शर्माते हैं परंतु कोई काम इमानदारी से किया जाए तो उसमें क्या शर्म, कोई भी काम हम अपने हालात के अनुसार चुनते हैं, और अपने परिवार को खुश रखने की कोशिश करते हैं मैंने भी अपने हालात के अनुसार काम चुना और अपने परिवार को पाल रही हूं।

Tuesday, November 7, 2017

बेजुबानों की बोलती नज़रें..........


हजारों लाखों बच्चे ऐसे हैं जब उन्होंने पहली बार अपनी खुली नजरों से इस संसार को देखा तो उनके सर पर न तो मां की ममता का आंचल था और न ही पिता का साया जो उनकी किलकारियों की गूंज से मनमुग्ध होते,  उनकी सुरक्षा की गारंटी देते, उन्हें गोद में उठाते लाड-प्यार करते, उन्हें चलना सिखाते, दुनिया से रुबरु होना सिखाते। फिर भी ऐसे लाखों बच्चों हैं जो मुस्कुरा रहे हैं हमारे आपके चेहरे को देखकर के उनके प्रति हमारे आपके थोड़े स्नेह को देखकर के मुस्कुरा रहे हैं । उन्हें हमसे कुछ नहीं चाहिए शिवाय मुस्कुराकर देखने दो पल ठहरकर उनसे बात करने के। बहुत बच्चे ऐसे भी हैं जो सुबह की पहली किरण निकलते ही सड़कों पर अपना बचपन बेचना शुरु कर देते हैं।


खामोश जुबां, मुस्कुराती निगाहें
आनंदवन वरोरा में बाबा आम्टे द्वारा बेसहारों के लिए बसाए गए आशियाने में सैकड़ों बच्चे ऐसे हैं जिनको जन्म देने वाला का या अपना सगा कहलाने कोई नहीं। इनके पास न तो जूबां है और न तो दुनिया के खट्टी-मीठी आवाज को सुनने की क्षमता हां  इनमें टैलेंट कूट-कूट कर भरा है कोई अच्छा क्रिकेट खिलाड़ी है तो कोई कैरम और सतरंज का खिलाड़ी। ये इशारोंं-इशारों में खुद को बयां करते हैं ।

फुटपाथ पर बिकता बचपन
खेलने कूदने की उम्र में खिलौने बेचकर पेट भरने वाले बच्चों की तदाद कम नहीं है, हर शहर में दिखाई दे देंगे।

मां के कदमों से कदम मिलाकर चलो, जीवन के  सफर में मुस्कुराकर चलो
खुशियां रहने और मुस्कुराने के लिए किसी वजह की जरुरत नहीं यह सीख सर बोझा लिए चल रहे इस  मासूम से ली जा सकती है।(अपनी मुस्कुराहट को मिला दो मेरी मुस्कान से)

बूढ़ी नजरों में बेबसी का आलम (मेरी नजर को तेरा इंतजार आज भी है)
जीवन संघर्षों के ताने-बाने से बुने उस जाल की तरह है  जिसकी उलझलोंं में पड़े-पड़े इंसान ताउम्र गुजार देता है। एक इंसान की जब उम्र ढलती है तो धीरे धीरे उसके सगे संबंधी उससे दूर होने लगते हैं यहां तक कि उनका अपना बच्चा भी अपनी दुनिया में इतना मसरूफ़ जाता है कि इन बूढ़ी नजरों के सामने  एक बार आने की  गुस्ताख़ी भी नहीं करता है। वो नादान ये भी भूल जाता है कि मैं उन नजरों से ओझल हो गया हूँ जिन नज़रों ने मेरे लिए सपने सजाए, जो नज़रे हर पल मेरे लिए बेताब रहती हैं, वो नजरें किसके सहारे जिंदा हैं, कहीं वो नजरें मेरे इंतजार में सूख तो नहीं गईं,  इतना भी जानने की कोशिश नहीं करता है। हर सुबह सूरज की लालिमा इनके चेहरे पर उम्मीद की किरण तो बिखेरती है परंतु धीरे-धीरे जब शाम ढलने लगती है तो इनकी उम्मीदों पर भी काली घटा छा जाती है। ये उम्मीदें अपनों के आने की आहट की होती हैं उनकी मधुर आवाज की होती, कान में  गूंजती किलकारियों की होती है, ये जिनपर पूरी जिंदगी न्योछावर करते हैं उनके रहमों-करम की होती हैं।


इंतजार कब तलक करें भला...
दिल्ली के कनाड प्लेस पर पेड़ की छांव के नीचे उम्मीद भरी नजरों को किसी अपने के आने का इंतजार  


चेहरे की झुर्रियों में आंखों से गंगा का प्रवाह
इलाहाबाद  के प्रयाग नगरी मेें गंगा नहाने अाई बूढ़ी अम्मा के मन में अास्था कूट-कूट  कर भरी है। बूढ़ी अम्मा के मन में अंजान लोगों के लिए भी प्यार गंगा की निर्मल धारा जैसा ही प्रवाहित होता है । लेकिन लाखों लोगों की भीड़ में भी ये अकेली हैं इसीलिए इनकी आंखों में नमी,चेहरे पर मायूसी है।।

अकेलेपन से जकड़े हैं मायूसी के आलम में


पैरों में छाले अब चलें भी तो किसके सहारे
इन थकी थकी सी नजरों को अाखिर इंतजार किसका है, आशाएं धुंधली हो चुकी हैं, उम्मीदों की सुबह अब होगी नहीं, न कोई साथी न तो कोई  हमदर्द है हम अपने दर्द को दिखाएं तो दिखाएं किसको।

उठते तूफां को देख दिल में  खौ़फ मंज़र
 उज्जैन के कुंभ मेले के दौरान आते तूफान को देखरकर हतास नजरें किसी आसरे की तलाश में 

किसी पर बोझ बनने से बेहतर है कोई कमाई का जरिया ढूंढ लें
इसी तर्ज पर ये काका नवाबों का शहर कहे जाने वाले लखनऊ में 30 वर्ष  रिक्सा चलाने के बाद जब शरीर जवाब देने लगी तो कुछ पैसा इकठ्ठा किए वजन बताने वाली मशीन खरीदे और बैठ गए सड़कों के किनारे।